Tuesday, June 19, 2018

Monday, June 18, 2018

GLOSSARY OF LIBRARY & INFORMATION SCIENCE

GLOSSARY OF LIBRARY & INFORMATION SCIENCE

       CHHABI NATH PRASAD
                LIBRARIAN     
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Friday, June 15, 2018

DEDICATION OF LIBRARY BLOG

DEDICATION OF LIBRARY BLOG OF KENDRIYA VIDYALAYA BUXAR

  

 









सृष्टि के आरम्भ में भगवान विष्णु की आज्ञा से ब्रह्मा ने जीवों, खासतौर पर मनुष्य योनि की रचना की। अपनी सर्जना से वे संतुष्ट नहीं थे। उन्हें लगता था कि कुछ कमी रह गई है जिसके कारण चारों ओर मौन छाया रहता है। विष्णु से अनुमति लेकर ब्रह्मा ने अपने कमण्डल से जल छिड़का, पृथ्वी पर जलकण बिखरते ही उसमें कंपन होने लगा। इसके बाद वृक्षों के बीच से एक अद्भुत शक्ति का प्राकट्य हुआ। यह प्राकट्य एक चतुर्भुजी सुंदर स्त्री का था जिसके एक हाथ में वीणा तथा दूसरा हाथ वर मुद्रा में था। अन्य दोनों हाथों में पुस्तक एवं माला थी। ब्रह्मा ने देवी से वीणा बजाने का अनुरोध किया। जैसे ही देवी ने वीणा का मधुरनाद किया, संसार के समस्त जीव-जन्तुओं को वाणी प्राप्त हो गई। जलधारा में कोलाहल व्याप्त हो गया। पवन चलने से सरसराहट होने लगी। तब ब्रह्मा ने उस देवी को वाणी की देवी सरस्वती कहा। सरस्वती को बागीश्वरी, भगवती, शारदा, वीणावादनी और वाग्देवी सहित अनेक नामों से पूजा जाता है। ये विद्या और बुद्धि प्रदाता हैं। संगीत की उत्पत्ति करने के कारण ये संगीत की देवी भी हैं। बसन्त पंचमी के दिन को इनके जन्मोत्सव के रूप में भी मनाते हैं। 

सूचना श्रोतों में माता सरस्वती का निवास होता है I पुस्तकालय में विभिन्न प्रकार के सूचना - माध्यमों के द्वारा पाठकों को उनकी आवश्कतानुसार सेवाएँ प्रदान की जाती हैं I सच्चे अर्थों में पुस्तकालय माता सरस्वति का मंदिर है I सत्य ही कहा गया है कि : -
    01.        सरस्वति का पावन मन्दिर .
                                                   सुख - समृद्धि तुम्हारी  है I
तुम में से हर एक पाठक ,
                                     इसका रक्षक और पुजारी है II
02. सुरसरि के भण्डार की .
                                     बड़ी अपूरब बात I
ज्यों खर्चे त्यों - त्यों बढ़े ,
                                    बिन खर्चे घट जात II     
03. विदयाधन उद्यम बिना .
                                       कहो जो पावे कौन I
       बिना डुलावे ना मिले ,
                                      ज्यों पंखे को पौन II 
04. करत करत अभ्यास से ,
                                      जड़मति होत सुजान I
रसरी आवत - जात से ,
                                
                                 शिल पर , पडत नीसान  II
















        

   प्रथमेश गणेश भगवान बुद्धि और युक्ति के प्रदाता हैं I लेखकों के आराध्य एवम् ईष्ट देव हैं I द्वापर युग की बात है महर्षि व्यास को महाभारत लिखने के लिये एक ऐसे लेखक की आवश्कता थी जो एक रात में निर्बाध गति से लेखन - कार्य करने में सक्षम हो I इसके लिये उन्होंने भगवान गणेश की स्वीकृति प्राप्त कर ली I प्रथमेश ने महर्षि व्यास की बुद्धि - युक्ति की  परीक्षण के लिये यह शर्त रखी कि यदि आप बीच में रुक गये तो तो मैं लेखन - कार्य समाप्त कर दूंगा I महर्षि व्यास भी विद्यावान गुणी अति चतुर थे I वे बोले पभू ! मेरे द्वारा बोले गये श्लोकों का मर्म एवम् अर्थ भली - भाँति समझ कर ही आप लेखन - कार्य करेंगे I भगवान गणेश महर्षि व्यास के इस शर्त को सहर्ष स्वीकार कर लिये I जब तक गणेशजी उनके द्वारा बोले श्लोक के अर्थ को समझते तब -तक  व्यास जी  दूसरे श्लोक की रचना कर लेते थे I इस प्रकार एक ही बैठक में  महाभारत का लेखन - कार्य भवन प्रथमेश के द्वारा संपन्न हुआ I इस प्रकार महर्षि व्यास भी अपनी बुद्धि एवम् युक्ति के आधार परीक्षण में सफल रहे I यह घटना हमें विद्वान होने के साथ बुद्धिमान एवम् गुणवान होने की शिक्षा देती है I इसलिये विद्या के साथ बुद्धि का होना परम आवश्यक है I





प्रत्येक पाठक को बल ,बुद्धि एवम् विद्या प्राप्त करने के लिये हनुमानजी के जीवन से प्रेरणा लेनी चाहिये क्योंकि ये विद्वान होने के साथ - साथ गुणों के सागर भी है और एक अच्छे समय - प्रबंधक भी हैं .

श्री गुरु चरन सरोज रज, 


निज मनु मुकुर सुधारि।



बरनउं रघुबर विमल जसु, 


जो दायकु फल चारि॥



बुद्धिहीन तनु जानिकै, 


सुमिरौं पवन-कुमार।


बल बुद्धि विद्या देहु मोहिं,


 हरहु कलेश विकार॥









       मदन मोहन मालवीय का जन्म इलाहाबाद के एक ब्राह्मण परिवार में 25 दिसंबर 1861 को हुआ था। वह अपने पिता पंडित बैजनाथ और माता मीना देवी के आठ बच्चों में से एक थे। पांच वर्ष की उम्र में उनकी शिक्षा प्रारंभ हुई और उन्हें महाजनी स्कूल भेज दिया गया। इसके बाद वह धार्मिक विद्यालय चले गए जहां उनकी शिक्षा-दीक्षा हरादेव जी के मार्गदर्शन में हुई। यहीं से उनकी सोच पर हिंदू धर्म और भारतीय संस्कृति का प्रभाव पड़ा। वर्ष 1868 में उन्होंने तब हाल ही में स्थापित हुए शासकीय हाईस्कूल में दाखिला लिया। 1879 में उन्होंने मूइर सेंट्रल कॉलेज (अब इलाहाबाद विश्वविद्यालय) से मैट्रिक तक की पढ़ाई पूरी की। वर्ष 1884 में उन्होंने कलकत्ता विश्वविद्यालय से बीए की शिक्षा पूरी की और 40 रुपये मासिक वेतन पर इलाहाबाद जिले में शिक्षक बन गए। वह आगे एम.ए. की पढ़ाई करना चाहते थे लेकिन आर्थिक स्थिति ठीक न होने के कारण ऐसा नहीं कर पाए।


पंडित मदन मोहन मालवीय एक स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, एक शिक्षाविद और समाज सुधारक थे और एक स्वतंत्र और आत्मनिर्भर भारत उनका उद्देश्य था। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अध्यक्ष पद पर काबिज होने के साथ ही उन्होंने 1931 में पहले गोल मेज सम्मेलन में महात्मा गांधी के साथ भाग लिया था। बनारस में प्रतिष्ठित बनारस हिंदू विश्वविद्यालय (बीएचयू) की स्थापना की। वह एक समाज सुधारक भी थे और समतामूलक समाज में विश्वास करते हैं। मालवीय एक परोपकारी भी थे, जिन्हें ‘महामना’ भी कहा जाता है। उनका निधन 1946 में हुआ था। उन्हें भारत के सर्वोच्च नागरिक अलंकरण भारतरत्न से मरणोपरांत 24 दिसंबर 2014 को सम्मानित किया गया।


























     रंगनाथन का जन्म 12 अगस्त 1892 को शियाली, मद्रास वर्तमान चेन्नई में हुआ था। रंगनाथ की शिक्षा शियाली के हिन्दू हाई स्कूल, मद्रास क्रिश्चयन कॉलेज में (जहां उन्होने 1913 और 1916 में गणित में बी ए और एम ए की उपाधि प्राप्त की) और टीचर्स कॉलेज, सईदापेट्ट में हुयी। 1917 में वे गोवर्नमेंट कॉलेज, मंगलोर में नियुक्त किए गए। बाद में उन्होने 1920 में गोवर्नमेंट कॉलेज, कोयंबटूर और 1921-23 के दौरान प्रेजिडेंसी कॉलेज, मद्रास विश्वविद्यालय में अध्यापन कार्य किया। 1924 में उन्हें मद्रास विश्वविद्यालय का पहला पुस्तकालयाध्यक्ष बनाया गया और इस पद की योग्यता हासिल करने के लिए वे यूनिवर्सिटी कॉलेज, लंदन में अध्ययन करने के लिए इंग्लैंड गए। 1925 से मद्रास में उन्होने यह काम पूरी लगन से शुरू किया और 1944 तक वे इस पद पर बने रहे। 1945-47 के दौरान उन्होने बनारस (वर्तमान वाराणसी) हिन्दू विश्वविद्यालय में पुस्तकालयाध्यक्ष और पुस्तकालय विज्ञान के प्राध्यापक के रूप में कार्य किया व 1947-54 के दौरान उन्होने दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ाया। 1954-57 के दौरान वे ज्यूरिख, स्विट्जरलैंड में शोध और लेखन में व्यस्त रहे। इसके बाद वे भारत लौट आए और 1959 तक विक्रम विश्वविद्यालय उज्जैन में अतिथि प्राध्यापक रहे। 1962 में उन्होने बंगलोर में प्रलेखन अनुसंधान एवं प्रशिक्षण केंद्र स्थापित किया और इसके प्रमुख बने और जीवनपर्यंत इससे जुड़े रहे। 1965 में भारत सरकार ने उन्हें पुस्तकालय विज्ञान में राष्ट्रीय शोध प्राध्यापक की उपाधि से सम्मानित किया।


पुस्तकालय सेवा में आदर्श भूमिका


सन् 1924 के पूर्व भारत में ग्रन्थालय व्यवसाय, लिपिक कार्य (बाबूगिरी) और घरों में ग्रन्थों तथा ग्रन्थ जैसी वस्तुओं को रखने का धन्धा मात्र ही समझा जाता था। यह सन् 1924 का समय था जब भारत के ग्रन्थालयी दृश्य पर डॉ॰ रंगनाथन का आगमन हुआ, वे प्रथम विश्वविद्यालयीय पुस्तकालयाध्यक्ष थे, जो मद्रास विश्वविद्यालय में नियुक्त किये गये। वे अपने जीवन के प्रथम 25 वर्षों के दौरान अपने को एकल-अनुसंधान में तल्लीन करके तथा शेष 25 वर्षों में दलअनुसंधान का संगठन करके भारत में ग्रन्थालयी दृश्य को पहले परिवर्तित किया। अपने पुस्तकालयी व्यवसाय के 48 वर्षों के दौरान, उन्होंने भारत में ग्रन्थालय व्यवसाय की उन्नति के लिए एक महान भूमिका निभाई. भारत के प्रथम राष्ट्रपति डॉ॰ राजेन्द्र प्रसाद ने डॉ॰ रंगनाथन के 71वें जन्म वर्षगाँठ के अवसर पर बधाई देते हुये लिखा, "डॉ॰ रंगनाथन ने

 न केवल मद्रास विश्व-विद्यालय ग्रन्थालय को संगठित और अपने को एक मौलिक विचारक की तरह प्रसिद्ध किया i सन् 1946-47 के दौरान जब वे काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के ग्रन्थालय विज्ञान के प्रोफेसर तथा पुस्तकालयाध्यक्ष थे, उन्होंने अपनी वर्गीकरण योजना के अनुसार विश्वविद्यालय ग्रन्थालय के लगभग एक लाख (1,00,000) ग्रन्थों का फिर से वर्गीकरण लगभग 18 महिनों के अल्प समय में किया।

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              डा मेलविल ड्युई के प्रयासों से कोलंबिया कालेज में पुस्तकालय विज्ञान का पहला अमेरिकन स्कूल १ जनवरी १८८७ को आरम्भ किया गया तथा इसे लाइब्रेरी इकोनोमी का नाम दिया गया जो की १९४२ तक अमेरिका में इसी नाम से प्रचलित रहा. इसके पाठ्यक्रमों में पुस्तकालय तकनीको तथा पुस्तकालय सेवा के व्यावहारिक पक्षों पर अधिक जोर दिया गया था। इस प्रकार १९वी शताब्दी के अंत तक अमेरिका में अनेक स्थानों पर पुस्तकालय विज्ञान की शिक्षा का कार्य प्रारम्भ हो गया था। अमेरिका ही पहला देश है जहाँ पुस्तकालय विज्ञान की स्नातक तथा डॉक्टर की उपाधियों से सम्बंधित पाठ्यक्रम सर्वप्रथम प्रारंभ किये गए।





 


          मुझे  छबि नाथ प्रसाद काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के पुस्तकालय एवम् सूचना विभाग जिसकी स्थापना पुस्तकालय एवम् सूचना विज्ञान भारतीय पिता पद्मश्री सियाली रामामृत रंगनाथन ने काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के संस्थापक भारत - रत्न महामना मदन मोहन मालवीयजी के अनुरोध पर किया था में अध्ययन करने का परम सौभाग्य प्राप्त हुआ . मैंने पुस्तकालय सेवा की यात्रा संसदीय - पुस्तकालय से सन 1990 से 1992 एवम् केन्द्रीय विद्यालय की यात्रा सन 1992 से प्रारंभ किया . वर्तमान में मैं केन्द्रीय  विद्यालय , बक्सर ( बिहार) में कार्यरत हूँ .
 इस  ब्लॉग एवम्  वेबसाइट के विकास में आपका  महत्वपूर्ण सुझाव एवम् विचार  का मैं  ह्रदय  से स्वागत करने के लिये सदैव कटिबद्ध हूँ .


श्री  छबि नाथ प्रसादजी
की  संक्षिप्त यात्रा -  वृत्तान्त
द्वारा
राजेश कुमार सिंह















 

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